mahakavi bhavbhuti - 1 in Hindi Fiction Stories by रामगोपाल तिवारी books and stories PDF | महाकवि भवभूति - 1

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महाकवि भवभूति - 1

महाकवि भवभूति उपन्यास


लेखक

रामगोपाल भावुक

000 संपर्क
000 संपर्कः कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा)
भवभूति नगर, जिला गवालियर (म0प्र0)
पिन- 475110
मोबा- 09425715707
जपूंतप तंउहवचंस 5/हउंपण्बवउ

सम्पादकीय

भारतीय साहित्य वाड़्मय की विश्व फलक पर अपनी एक पृथक् पहचान है, जिसमें संस्कृत-साहित्य एवं मनीषियों को विलोपित कर दिया जाए, तो इसका उद्गम स्रोत खोज पाना असंभव हो जाएगा। संस्कृत-साहित्य की विविध विधाओं नाट्य, काव्य, पद्य, गद्य, चम्पू, रूपक, प्रहसन, भाण आदि की विस्तृत परम्परा तथा विपुल साहित्य भण्डार प्राप्य है। इनमें भी खयतनामा हस्ताक्षरों का नाम लिया जाए, तो हमें अत्यन्त गर्व होता है कि इनकी एक बड़ी संख्या भारतवर्ष के हृदयस्थल मध्यप्रदेश से जुड़ी रही है। प्रमुखता से देखा जाए तो कालिदास, भवभूति, भर्तहरी, भारवि, बाणभट्ट, राजशेखर, पतंजलि, भोज आदि का नाम साधिकार लिया जा सकता है। इनमें से प्रत्येक की यह प्रदेश जन्मस्थली रही है या उसने यहाँ की नैसर्गिक आभा में रच बस कर उसे अपनी कर्मस्थली के रूप में स्वीकार किया है।
इन्हीं में से एक हैं, करूण रस के अमर गायक, सफल नाटककार एवं ख्यात् नामा संस्कृत महाकवि भवभूति। मध्यप्रदेश के गोपांचल (ग्वालियर अंचल) को इसका श्रेय प्राप्त है। ऐसा माना जाता है कि भवभूति ने पवाया (पद्मावती) को अपनी कर्मस्थली के रूप में स्वीकार किया था। यहॉं आज भी प्राचीन नाट्यमंच, धूमेश्वर महादेव का मंदिर एवं ऐसे कई पुरावशेष प्राप्त हुए हैं, जिनके आधार पर यह कहा जा रहा है कि यह पूर्व में एक समृद्ध नगर रहा होगा। परम्परा रही है कि नदियों के किनारे नगर बसते रहे हैं। यहाँ भी सिन्ध एवं पारा जेसी विशाल नदियाँ उपलब्ध हैैं।
यद्यपि भवभूति के जन्मस्थान एवं कालावधि के विषय में मतभेद हैं, फिर भी अनुसन्धान के अनुसार इनकी कालावधि अष्टम शताब्दी का पूर्वार्द्ध होना लगभग सिद्ध माना जाता है।
भवभूति ने अपनी कल्पनाशीलता से रामकथा को एक नवीन आयाम प्रदान किया, उनके महावीरचरितम् एवं उत्तररामचरितम् में बड़ी ही मार्मिकता से रामकथा को अपने नवसृजन के साथ प्रस्तुत किया गया है। उसकी सार्थकता इनके द्वारा और भी प्रखर हो कर सामने प्रस्तुत होती है। महाकवि ने उत्तररामचरितम् में करूण और संवेदना की ऐसी अविरल धारा प्रवाहित की है, कि उन्हें ‘‘एको रसः करूणएव’’ के रूप में स्वीकार किया जाने लगा है। यद्यपि महाकवि के प्राप्य तीन नाटकों में वीर, श्रृंगार और करूण तीनों ही रसों का निष्पादन बखूबी हुआ है। आलोचकों द्वारा उत्तररामचरितम् को विशेष महत्व प्राप्त है, जिसका कलेवर, प्रस्तुति तथा शैली अपाने में एक अलग ही संसार कही जा सकती है। इसमें राम के उत्तर जीवन चरित का संशोधित, परिमार्जित रूप प्रस्तुत किया गया है। जो बनावटी नहीं वरन् वास्तविक सा बन पड़ा है, इसमें सर्वज्ञ राजा राम न होकर एक सामान्य पुरूष के रूप में प्रस्तुत हैं। जिन्हें स्वयं के कृत्य पर पश्चाताप है और वे उसका प्रायश्चित करना चाहते हैं। उनकी आन्तरिक करूण भावनाएँ अपने नाट्य काव्य माध्यम से भवभूति जन-जन तक पहँुचाने में सफल भी हुए हैं।
महावीरचरितम् के माध्यम से उन्होंने पारम्परिक कथानक को अपनी दृष्टि एवं कल्पनाशीलता के अनुरूप परिवर्तित कर राम का वीर रूप प्रदर्शित करने की सफल चेष्टा की है, इसमें प्रबलता से प्रस्तुत राम का वीर चरित उनकी गरिमा के अनुरूप लगता है। महाकवि के एक प्रहसन नाटक मालतीमाधवम् में तत्सामयिक सामाजिक, राजनैतिक व्यवस्थाओं पर कटाक्ष करने के साथ-साथ एक प्रेम प्रसंग का सफलता से वर्णन प्रस्तुत किया है। अपनी बात जनसामान्य तक पहुँचाने में कवि का प्रयास सफल बन पड़ा है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह नाटक वास्तव में जनता के लिए जनता के बीच ही खेले जाने के लिए लिखे गये होंगे। जिसे कवि स्वयं भी सूत्रधार के मुँह से स्वीकार करता है कि कालप्रियानाथ के यात्रा-उत्सव के लिए लिखे गए इस नाटक का मंचन आज यहाँ प्रस्तुत होने जा रहा है। प्रदेश के गौरव हस्ताक्षर एवं इस उदात्त महाकवि भवभूति को अपनी सूक्ष्म भावनाओं की कसौटी पर कस, उसी क्षेत्र के एक सामान्य किन्तु अत्यन्त भावुक हृदय व्यक्तित्व श्री रामगोपाल तिवारी ‘भावुक’ ने अपनी कल्पना की उड़ान से साक्षात् प्रस्तुत करने का श्लाघनीय प्रयास किया है। यद्यपि इसमें उनकी वास्तविकताओं का कोई साक्ष्य तो प्रस्तुत नहीं है, तथापि प्रभावी तथ्यों के माध्यम से वास्तविकता के निकट पहँंुचने का प्रयास मात्र है। विश्वास है सहृदयी जन इसे उपकृत अवश्य ही करेंगे। इसमें लेखक अथवा मेरी भावना किसी तथ्य को सिद्ध करना न होकर उसके दूसरे पक्ष को सामने प्रस्तुत करना ही रही है।
मेरी प्रथम भंेट मध्यप्रदेश संस्कृत अकादेमी द्वारा आयोजित अखिल भारतीय भवभूति-समारोह के प्रतिष्ठा उपक्रम में उसके द्वितीय चरके के रूप में डबरा में आयोजित सर्वेक्षण-सत्र में श्री भावुक से हुई, उन्होंने अनेकानेक विद्वान हस्ताक्षरों से सम्पर्क एवं चर्चा में अपनी इस भावना से मुझे भी अवगत करवाया कि वे ‘भवभूति’ के जीवन चरित पर एक उपन्यास लिखना चाहतें हैं, मैनें भी सामान्य रूप से उनकी भावना का सम्मान कर कह दिा कि कार्य अच्छा है, इसका क्रियान्वयन समयानुरूप किया जा सकता है। किन्तु आश्चर्य तब हुआ कि उन्होंने मात्र छः माहों के अल्प समय में ही अपनी विचारशीलता को कार्यरूप प्रदान कर एक ग्रन्थ मेरे समक्ष प्रकाशन के लिए प्रस्तुत कर दिया। जो आज आपके हाथों में है।
बारह सर्गों मे ंविभक्त इस कृति में महाकवि के उापलब्ध तीनों नाटकों का संक्षिप्त, समालोचनात्मक एवं प्रसंगानुरूप प्रयोग किया गया है। इस नवीन प्रयोग से जहाँ एक ओर महाकवि के व्यक्तित्व, पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनैतिक परिवेश का ज्ञापन होता है, वहीं दूसरी ओर उनके उज्ज्वल कृतित्व का आभास भी सहज ही प्राप्त हो जाता है। यह लेखक की कुशल कल्पनाशीलता का ही परिणाम कहा जा सकता है।
विश्वास करता हँू कि मेरे द्वारा सम्पादित यह प्रथम पुष्प आपके ज्ञानमंदिर की वीथिका में उचित स्थान प्राप्त कर सकेगा। हमें आपकी प्रतिकियाओं की निरंतर अपेक्षा एवं प्रतीक्षा रहेगी।
दीपक कुमार गुप्ता ‘दीप’ सम्पादक

भवभूति के गाँव में एक दिन
महाकवि भवभूति भारतीय साहित्य एवं संस्कृति की अमर विभूति हैं। उनका साहित्यिक अवदान न केवल एक कवि एवं नाटकार के रूप में वरन् एक महान प्रेरक के रूप में भी हमारे स्वर्णिम इतिहास का अविस्मरणीय अध्याय है।
भवभूति अपने युग के एक कुशल कल्पनाकार, समाजशिल्पी, प्रयोगधर्मी रंगकर्मी एवं उत्कृष्ट नाटककार हैं। अपने समय के एक क्रान्तधर्मी युगदृष्टा की तरह उन्होंने एक सम्पूर्ण युग जिया। राजाश्रय परम्परा में उनका विश्वास न था, उन्होंने अपने नाटकों का सृजन एवं उनका मंचन जनता के बीच शुरू किया। जनहृदय के साथ अपनी पीड़ा का तादात्म्य स्थापित कर उन्होंने करुणरस को जो ऊँचाईयाँ प्रदान की, उसकी अनुकृति साहित्य-जगत् में अन्यत्र कम ही देखने को मिलती है।
भवभूति की जीवनगाथा को उपन्यास के ताने-बाने में बुनकर श्री रामगोपाल भावुक ने अपनी कल्पना शक्ति की छटा का श्रेष्ठ परिचय प्रस्तुत किया है। भावुक ने भवभूति के समय को यहाँ साकार कर दिया, जो पात्र और चरित्र कथानक की विकास-यात्रा से यहाँ जुड़ते चले गये हैं। वे कागज की सतह पर सजीव हो उठे हैं।
भावुक ने अपनी कलम से जिस भवभूति को यहाँ जीवंत आकार दिया है, वह भले ही इतिहास का सच सिद्ध न हो, किन्तु वह भवभूति के युग और समाज का संास्कृतिक सच तो माना ही जा सकता है। यहाँ एक सम्पूर्ण साँस्कृतिक परिवेश का सृजन हुआ है। जिसमें बोलते-बतियाते पात्रों का चरित्राँकन भवभूति के साथ उनके रिश्तों की पृष्ठभूमि में हमें उनके समय का बोध और बौद्धिक तेजस्विता की अनुभूति कराने में सक्षम है।
भवभूति उपन्यास के सृजन हेतु महाकवि की कर्मस्थली पवाया में, अतिप्राचीन रंगमंच के निकट खड़े होकर, परस्पर इस विषय पर चर्चा करते हुये एक सांस्कृतिक सहयात्रा के दौरान मैंने जब कथाकार भावुक से यह महान् कार्य सम्पन्न करने का विचार दिया था, वह क्षण मुझे आज भी स्मरण हैं। मध्यप्रदेश संस्कृत अकादेमी के सचिव के रूप में मैं अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहा था। शासन स्तर पर भवभूति-समारोह आयोजित था, जिसमें प्रसिद्ध नाट्यकार डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी, साहित्यवेत्ता पण्डित गुलाम दस्तगीर, रंगकर्मी डॉ. कमलवशिष्ठ एवं राष्ट्रीय स्तर के अन्यान्य विद्धत्जनों के बीच इस विषय पर उपन्यास लिखने का शुभ संकल्प श्री भावुक ने अपनी इसी सांस्कृतिक यात्रा के दौरान लिया था। आयोजन के समापन क्षणों में ही कृति का बीजारोपण हो चुका था। सचमुच मेरी आशाओं और आकांक्षाओं को एक ठोस विश्वास मे बदलकर भावुक ने अपनी रचनाधर्मिता का समर्थ सबूत प्रस्तुत किया है।
मालतीमाधवम्, उत्तररामचरितम् एवं महावीरचरितम् इन तीन उपलब्ध कृतियों के अलावा अन्य शोध-सामग्री को भी भावुक ने बड़ी कुशलता से अपने चिन्तन का विषय बनाया है। आचार्य भगवान शर्मा, महाशिल्पी वेदराम, दुर्गा भाभी आदि सभी पात्रों का जीवंत सृजन एवं संवादों के माध्यम से भवभूति के साहित्य पर गहन विमर्श महाकवि के जीवंत आयाम प्रस्तुत करता है।
भावुक ने रसविभोर हो अपनी रचनाशीलता के आलोक में कल्पना के पंखों पर उड़ने का जो साहस दिखाया है, वह प्रशंसनीय है। यह एक युगान्तकारी रचनाकार के व्यक्तित्व की पुनर्रचना है। मेरा बचपन भी यहीं आसपास पार्वती नदी के तट पर बसे एक छोटे से गाँव में बीता। यही पावन सौंधी-सौंधी सुंधियांे की सुगन्ध मेरे मन को आज भी सुवासित कर रही है।
कालप्रियनाथ मंदिर के किनारे बहती शीतल-सलिल धाराओं के संगम में आज जिस भवभूति का चेहरा उभर रहा है, उसे समझने की मैंने बहुत चेष्टा की है। लगता है, जैसे भवभूति ने अपना उत्तराधिकार चैतन्य को सौंपकर भावुक की कलम से एक उत्कृष्ठ कृति ‘भवभूति’ की सृष्टि करवा डाली है। जिसमें लेखक की आत्मा की झलक सर्वत्र स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
भवभूति उपन्यास के सफल सृजन के लिये कोटिशः बधाईयाँं। प्रकाशन-पर्व पर मंगलकामनाएँ। इन्हीं भावनाओं और सपनों के साथ। भवभूति के शब्द-शब्द को मेरे प्रणाम!
डॉ. भगवानस्वरूप शर्मा ‘चैतन्य’
संपादक,लोकमंगलपत्रिका,साहित्य अकादमी,पंडित
गुलाव मार्केट, माधैगंज ग्वालियर-1

भावात्र्जलि
पद्मावती नगरी के अवशेष मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले में स्थित भवभूतिनगर ‘डबरा’ रेल्वे स्टेशन से भितरवार नरवर रोड पर 10 कि.मी. चलने पर बायंीं ओर चित्ओली (चिटौली) सालवई ग्राम से शुरू हो जाते हैं। कुछ समय पूर्व इस गाँव के लोगों ने खेतों का समतलीकरण कराया हैं जिसमें एक प्राचीन बस्ती के अवशेष मिले हैं। यहाँ जो ईटें मिली हैं, कुछ मूर्तियांँ मिली हैं, वे सब पद्मावती की ईटों और नमूनों से मिलते-जुलते हैं। मालतीमाधवम् नाटक में लवण सरिता का वर्णन आया है। यह अवशेष लवण सरिता अर्थात नोंन नदी के किनारे पर आज हमें देखने को मिल रहे हैं। यहाँ के लोग मानते हैं कि इस नगर का विस्तार इस गाँव तक फैला हुआ था। यहाँ जो ईटें मिली हैं उनका आकार 19-10-3 इंच हैं। इससे सिद्ध होता है कि इस नगरी के आसपास जो गाँव रहे हैं, वे पद्मावती नगरी की तरह पूर्ण रूप से विकसित थे।
अब हम इसी रोड़ पर आगे नोंन नदी (लवण सरिता) को पार करते हुये करियावटी गाँव में पहुंँचते हैं। यहाँ से बाँयी ओर साखनी (साँखनी) गाँव के लिये रास्ता जाता है। आगे बढ़ने पर पारा ‘‘पार’’ (पाटलावती) नदी को पार करने पर एक रास्ता बाँयी अेार मुड़ता है। यहीं से एक डामर रोड़ हमें धूमेश्वर महादेव के मंदिर तक ले जाता है।
इतिहासकारों का कहना है कि यह नगरी ईसा की पहली शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक फली-फूली है। (पद्मावती - डॉ. मोहनलाल शर्मा, पृष्ठ- 66-5.6 मुस्लिम मकबरे) यहाँ उस समय नागों का शासन रहा है। धूमेश्वर का मंदिर इस क्षेत्र में आज भी तीर्थ-स्थल बना हुआ है। इसका पुनर्निर्माण ओरछा के राजा वीरसिंह जूँदेव ने करवाया था। भवभूति के नाटकों में कालप्रियनाथ की यात्रा उत्सव के समय उनके नाटकों का मंचन इस बात का प्रतीक है। यहाँ प्राचीनकाल से ही बड़ा भारी मेला लगता आया है। यह धूमेश्वर का मंदिर ही कालप्रियनाथ का मंदिर था।
इस मंदिर की दीवार पर दो फारसी के शिलालेख आज भी मौजूद हैं, जिन्हें पढ़ कर व्याख्यायित किए जाने की आवश्यकता है, तभी यह स्पष्ट हो पाएगा कि यह मंदिर क्यों और कैसे बनवाया गया है? वर्ष 1999 में मध्यप्रदेश संस्कृत अकादेमी द्वारा आयोजित ‘भवभूति समारोह’ में मुम्बई से पधारे वरिष्ठ संस्कृत मनीषी पं. गुलाम दस्तगीर से इसे पढ़वाने का प्रयास किया गया, किन्तु वे एक शब्द ‘अल्लाह’ ही पढ़ पाने में सफल रहे।
पदमावती नगरी के परिक्षेत्र में सिकन्दर लोधी आया था। उस समय के पाँच भव्य मकबरे भी यहाँ देखे जा सकते हैं। प्रश्न उठता है कि क्या उसने कालप्रियनाथ के मंदिर को यथावत् रहने दिया होगा? धूमेश्वर मन्दिर के गर्भगृह के दोनों ओर अरबी- फारसी के जो शिलालेख स्थापित हैं। इनकी चर्चा
1-खान, फिरोज (2002) पृष्ठ संख्या .169-171
2-इन्शक्रिपशंस ऑफ ग्वालियर
मटेरियल फार द हिस्ट्री ऑफ गोपाद्री रीजन-वाल्यूम पप पृष्ठ संख्या 469-470
लेखक- अरविन्द कुमार सिंह एवं नवनीत कुमार जैन ने अपनी इस कृति में इन शिलालेखों का अर्थ स्पष्ट किया गया है कि बादशाह जहांगीर के आदेशानुसार मुसलमान लोग इस पूजा स्थल को नुकसान न पहुँचाये अन्यथा उन्हें गिरफ्तार कर लिया जावेगा।
इस शिलालेख से भाषित होता है कि सिकन्दर लोधी ने इसका रूप ध्वस्त कर दिया था। उसके वाद निश्चय ही यह खण्डहर जहांगीर के काल तक पड़ा रहा। ओरछा के राजा वीरसिंह जूँदेव का ध्यान इस ओर गया और उन्होंने इसका पुनर्निर्माण कराना शुरू कर दिया। वर्तमान में जो शिवलिंग उपलब्ध है, वह तो ओरछा नरेश के द्वारा स्थापित किया गया है।
इस मंदिर के पास ही एक जलप्रपात है, जिसका वर्णन मालतीमाधवम् में भी आया है। मंदिर के पास से ही नदी के अंदर किनारे से लगा हुआ एक नौ चौकिया (नाचंकी) बना हुआ है। कुछ लोग इसे पद्मावती के समय की इमारत मानते हैं, कुछ विद्वान् इसे मंदिर के समकालीन और कुछ इसका संबंध पृथ्वीराज से जोड़ते हैं। संभवतः इस इमारत की इबारत पढ़ने वाला कोई इतिहासकार अपना ध्यान इस ओर केन्द्रित नहीं कर पाया है। हाँ ईटें, पत्थर और चूने के मिश्रण से इसका मूल्याँकन करने वाले इस इमारत को मंदिर के समकालीन मानते हैं।
यहाँ के पास में ही मलखान पहाड़ी है, मलखान एक वीर पुरुष था। कहते हैं जब वह यहाँ आकर ठहरा तथा उसने अपनी साँग गाड़ दी थी, तभी से इस पहाड़ी का नाम ही मलखान पहाड़ी पड़ गया है। उनकी साँग पिछले कुछ दिनों तक यहाँ गड़ी रही है। यह एक प्राचीन सिद्ध स्थान है।
अब हम उस टीले पर दृष्टि डालें जिसका ग्वालियर राज्य के पुरातत्व विभाग के भूतपूर्व संचालक श्री मो.वा. गर्दे ने उत्खनन कार्य 1925 से 1939 तक करवाया था, यहाँ उत्खनन का कार्य सन् 1941 तक चलता रहा, इस पर पुरावत्ववेत्ताओं, इतिहासकारों एवं साहित्यकारों की दृष्टि लगी हुई है। श्री गर्दे ने उसे विष्णु मंदिर का नाम दिया है (पद्मावती- पृ. 63), इसका कारण यह रहा है कि यहाँ विष्णु की मूर्ति मिली है। मिलने को तो यहाँ सूर्य भगवान की भी मूर्ति मिली है, अतः इसे क्या सूर्य मंदिर नाम देना उचित होगा ? यदि सूर्य से कालप्रियनाथ का नाम जुड़ता है तो निश्चय ही यह मालतीमाधवत् में वर्णित कालप्रियनाथ का मंदिर है। जो भी हो उस समय इस नगर में विष्णु, शिव एवं सूर्य की उपासना की जाती थी। यहाँ जो स्मारक खुदाई में निकला है, उस चबूतरे का आकार 143 फीट लम्बा एवं 140 फीट चौड़ा है। उसके ऊपर जो चबूतरा है उसकी लम्बाई 93 फीट है, उससे ऊपर जो चबूतरा है वह 53 फीट ही लम्बा है। ऊपरी भाग को छोड़कर प्रत्येक भाग की ऊँचाई 10-12 फीट से अधिक ही होगी, अतः इसे विशाल चबूतरों का एकीकृत रूप कहा जा सकता है।
इस स्मारक के पास अनेक मृण्मूर्तियाँ मिलीं हैं, इससे अनुमान लगाया जा सकता हैं कि इन मूर्तियों का उपयोग इस इमारत को सजाने के लिये किया जाता होगा। यहाँ नाग राजाओं के राजचिन्हयुक्त स्तम्भ भी मिले हैं, इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह कोई राजसभा रही हो, जिसे राजचिह्नों से सजाया गया हो। यहाँ ताड़ के वृक्षों की आकृति के साथ एक छोटा सा नन्दी भी मिला है। ये नाग राजाओं के राजचिह्न थे और राजचिह्नों का उपयोग राजसभा जैसी जगह पर ही संभव है। नाग राजा शिव, विष्णु और सूर्य के उपासक रहे, संभवतः राजसभा में अपने-अपने इष्टदेवों की मूर्तियों का उपयोग किया गया होगा।
एक गीत, नृत्य एवं दृश्य की मूर्ति भी यहाँ मिली है, जो साहित्यकारों को अलग ही प्रकार से सोचने के लिये विवश कर देती है। इस मूर्ति को ध्यान से देखें तो लगता है यह इमारत न विष्णु मंदिर है, न शिव मंदिर और ना ही कोई राजसभा, बल्कि यह तो एक नाट्यमंच ही खुदाई में निकला सा लगता है। इस नाट्यमंच को सजाने के लिये ही इन मूर्तियों का उपयोग किया गया होगा। जो राजचिह्न मिले हैं, उससे लगता है कि राजा महाराजा यहाँ बैठकर नाटकों का आनन्द लेते होंगे। इस मंच के ऊपर एक चबूतरा है, उस पर बैठकर जो दृश्य हो सकता है वह एक गीत नृत्य दृश्य की मूर्ति से स्पष्ट हो जाता है। इस मूर्ति में छत्रधारिणी विदुषी नारी बैठी है, नर्तकी नृत्य कर रही है तथा वाद्य बजाने वाले अपने अपने वाद्यों को बजाने में निमग्न हैं। सामने जो उससे नीचे चबूतरा है, वह तीन चार फीट ही नीचा होगा, वहाँ राजसभा के सभी लोग बैठकर आनन्द लेते होंगे। उससे नीचे के चबूतरे का उपयोग सेना प्रमुखों और उससे नीचे वाले का उपयोग नगर के सेठ साहूकारों द्वारा किया जाता होगा। जन साधारण को धरती से ही इसका आनन्द लेना पड़ता होगा।
ऐसी मान्यता है कि भवभूति के नाटक कालप्रियनाथ के यात्रा-उत्सव में यहीं खेले गये हैॅं जिसे गीत, नृत्य एवं दृश्य की इस मूर्ति के आधार पर नकारा नहीं जा सकता।
मालतीमाधवम् में सिन्ध नदी और पारा नदी के संगम पर मालती को स्नान करते हुये प्रस्तुत किया जाना, नाटक में इन सभी नदियों का वर्णन, स्वर्णबिन्दु, श्रीपर्वत का वर्णन इत्यादि से सिद्ध होता है कि यह नाटक यहीं खेला गया होगा। यदि धूमेश्वर मंदिर को कालप्रियनाथ का मंदिर माना जाये तो यह नाट्यमंच मेला स्थल मंदिर से अधिक दूर भी नहीं है और मेले से हटकर नदी के पार बना हुआ है। जिससे शांति के वातावरण में इस पर मंचन किया जा सके। इस क्षेत्र में नटों के आधार पर गँावों के नाम मिलते हैं। जैसे खेड़ी नटवा, इस क्षेत्र में नटों का बाहुल्य था। भवभूति ने स्वयं मालतीमाधवम् नाटक में कामन्दकी का अभिनय किया है। नटों के साथ उनके मित्रता के संबंध थे, उन्होंने इसका अभिनय ही नहीं किया बल्कि नटों को इसके अभिनय का ज्ञान भी दिया था। उन्हें पढ़ाया लिखाया भी था। अतः भवभूति अकेले नाटक लेखक ही नहीं बल्कि अभिनेता और निर्देशक सभी कुछ रहे होंगे। मालतीमाधवम् नाटक इसी पात्र कामन्दकी के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता है। आज इस स्तर के बिरले ही निर्देशक हैं, जो स्वयं नाटक लिखे पात्र बनकर स्वयं अभिनय करें, साथ-साथ निर्देशन का कार्य भी कुशलतापूर्वक सम्पन्न करे। यह तो भवभूति जैसे विद्धान-मनीषी द्वारा सहज ही सम्भव है।
अब हम उस स्थान पर आप सभी का ध्यान केन्द्रित करना चाहेंगे, जहाँ सिंध और पारा नदी का संगम है। यहीं मालतीमाधवम् में मालती के स्नान करने का दृश्य वर्णित है। यहीं पद्मावती का ध्वस्त किला बना हुआ है। कहते हैं कि यह एक प्राचीन किला है, राजा नल से भी इसका संबंध रहा है तथा नरवर के कुशवाह राजाओं के द्वारा बनाया गया है। इस किले के पिछले कुछ दिनों तक अवशेष जीवित रहे हैं। यहाँ सिक्के मिलते हैं वे कई शताब्दियों के हैं। इस किले से नदी तक पक्की सीढ़ी बनी है। जिस पर लोग बैठकर स्नान करते होंगे। सीढ़ियाँ मिट्टी से दब गई हैं। आज भी ऐसा लगता है मालती यहाँ से स्नान कर के अभी ही गई है।
यहाँ से 3-4 कि.मी. की दूरी पर एक स्वर्ण बिन्दु है। यह स्थान सिन्ध और महुअर नदी के संगम पर स्थित है। एक चबूतरे पर शिवलिंग मिला है। मालतीमाधवम् नाटक के इस स्वर्ण बिन्दु पर शिवलिंग का वर्णन है। चबूतरा तो पत्थर और चूने का बना है, ईटें पद्मावती से मिलती-जुलती हैं। यहाँ का शिवलिंग बहुत प्राचीन प्रतीत होता है। इस चबूतरे के नीचे एक माँ-बेटे की मूर्तियों के निचले हिस्से मिले हैं। स्त्री की पायल को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि यह गुप्तकाल के समय की बात रही होगी (पद्मावती-पृ. 52)। सम्भव है यह चबूतरा ही बाद में बनाया गया हो या मूर्तियाँ बाद की हों। मालतीमाधवम् के वर्णन के आधार पर इसे स्वर्ण बिन्दु न मानना हमारी त्रुटि होगी।
पद्मावती में भीतर-बाहर आने-जाने का मुख्य मार्ग वर्तमान में स्थित भितरवार बस्ती से था, जो आज भी अपने वैभव की कहानी स्वयं कहता सा लगता है। इस क्षेत्र का निवासी होने के नाते यह उपन्यास गहन सोच का परिणाम मानता हँू। यहाँ की नैसर्गिक सुन्दरता, ऐतिहासिक-तथ्य तथा साहित्य का संगम इस स्थान को पर्यटन के स्थल के रूप में विकसित करने के अनन्य संभावनाएँ अपने में समेटे है।
इस तरह बचपन से ही मेरी दृष्टि पद्मावती नगरी के इतिहास पर गहराती चली गई। मैं अपने मित्रों के साथ यहाँ टहलने के लिये जाने लगा। महाकवि भवभूति पद्मावती के पुरावशेषों की इन पर्तों से निकलकर बतियाने लगे- भवभूति महाकवि कालिदास के परवर्ती महाकवि हैं। महाकवि बाण भवभूति से पहले हो चुके थे। भवभूति ने कहीं-कहीं बाण की भाषा को आदर्श मानकर उसका अनुसरण भी किया है। मालतीमाधवम् के नवम् एवं दशम् अंकों पर कादम्बरी का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है, बाण का काल सप्तम् शताब्दी का पूर्वाद्ध माना गया है। सिद्ध ही है कि भवभूति बाण के समय में नहीं थे।
कल्हण के अनुसार भवभूति कान्यकुब्ज के राजा यशोवर्मा के आश्रित थे। यशोवर्मा को कश्मीर नरेश ललितादित्य ने पराजित किया था। राजतंरगिणी के अनुसार राजाधिराज ललितादित्य का समय 693 ई. से 736 ई. तक था।
यशोवर्मा के राजकवि वाक्पतिराज ने अपने प्राकृत काव्य ‘गउडवहो’ में एक सूर्यग्रहण का वर्णन किया है जिसके दूसरे दिन महाराज ललितादित्या द्वारा यशोवर्मा पराजित किए गये थे। डॉ. याकोवी की गणना के अनुसार इस ग्रहण की तिथि 14 अगस्त, 733 ई. है। अतः यशोवर्मा के पराजित होने की तिथि 15 अगस्त 733 ई. हुई। उस समय भवभूति एवं वाक्पतिराज दोनों ही यशोवर्मा के आश्रय में थे। वाक्पतिराज ने भवभूति के संबंध में अपने ग्रन्थ गउडवहो में जो पद्य लिखा है, उससे सिद्ध होता है कि इस ग्रन्थ की रचना से पूर्व भवभूति अपने कृतियों का सृजन कर चुके थे। उपर्युक्त सूर्यग्रहण के वर्णन से यह निश्चित हो जाता है कि इस ग्रन्थ की रचना 15 अगस्त 733 ई. के बाद हुई। गउडवहो में यशोवर्मा की गोड़ विजय का वर्णन किया गया हैै, इससे पूर्व भवभूति अपने नाटक लिख चुके थे। कवि राजशेखर ने स्वयं को भवभूति का अवतार घोषित करने में गौरव का अनुभव किया है। राजशेखर का समय दशम शताब्दी का पूर्वाद्ध माना जाता है।
महाकवि भवभूति का काल सप्तम् शताब्दी के अंतिम चरण से अष्टम् शताब्दी के पूर्वाद्ध तक निश्चित किया गया है। अपने जन्म के सम्बध में स्वयं भवभूति ने लिखा है- ‘‘अस्ति दक्षिणापथे पद्मपुरं नाम नगरम्..............’’ इससे स्पष्ट हो जाता है कि, दक्षिणपथ में विदर्भ प्रान्त में पद्मपुर नामक नगर में भवभूति का जन्म हुआ था। डॉ. वेल्वलकर की धारणा है कि माधव के रूप में स्वयं भवभ्ूति ही विद्या अध्ययन के लिये पद्मावती गये होंगे।
उनके नाटकों की प्रस्तावना के आधार पर उनके पूर्वज कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे। इस कुल में महाकवि नाम के एक प्रख्यात महानुभाव उत्पन्न हुये हैं, जिन्होंने बाजपेयी यज्ञ किया था। उनकी पाँचवी पीढ़ि में भवभूति का जन्म हुआ। भवभूति के पितामह का नाम भट्टगोपाल तथा पिता का नाम नीलकंठ और माता का नाम जतुकर्णी (जातुकर्णी) था। श्रीकण्ठ स्वयं भवभूति नाम से विभूषित हुए। वे व्याकरण, मीमांसा और न्यायशास्त्र के अध्ययन हेतु पद्मावती नगरी में आये थे। इनके गुरू का नाम ज्ञाननिधि था। जो परमहंसों में उसी प्रकार श्रेष्ठ माने जाते थे, जैसे ऋषियों में अंगिरा।
भवभूति महाकवि की उपाधि है। महावीरचरितम् की टीका में वीरराघव ने लिखा है- ‘कवि का पितृकृत नाम श्रीकण्ठ था, ‘साम्बा, पुनातु भवभूति ़पवित्र मूर्तिः’ की रचना से संतुष्ट हो कर राजा ने उन्हें भवभूति की उपाधि से अलंकृत किया था-
तपस्वी कां गतोऽवस्थामिति स्मेराननाविव।
गिरिजायाः स्तनौ वन्दे भवभूतिसिताननौ।
इस श्लोक के कारण कवि को भवभूति की उपाधि प्राप्त हुई है। मालतीमाधव के टीकाकार जगत्धर का भी यही मत है - ‘नाम्ना श्रीकण्ठः प्रसिद्धचा भवभूतिः‘। लोग भवभूति का वास्तविक नाम भूलकर उनकी उपाधि को ही मूल नाम की तरह प्रयुक्त करने लगे।
मराठी और हिन्दी में प्रकाशित डॉ. मिराशी का भवभूति के ऐतिहासिक पक्ष पर जोर देने वाला प्रामाणिक गन्थ है उसी के अनुसार ‘‘भवभूति राजाश्रय अथवा लोकाश्रय के लिये उत्तर भारत में पद्मावती कन्नौज आदि स्थानों की ओर चले गये होंगे।’’ उनके नाटकों की प्रस्तावना से स्पष्ट संकेत मिलता है कि उनका प्रथम अभिनय कालप्रियनाथ के यात्रा-उत्सव में किया गया होगा।
यदि उन दिनों भवभूति किसी राजा के आश्रय में होते तो उनके नाटक राजकीय नाट्यमंच पर प्रदर्शित किये जाते। भवभूति ने कहीं भी राजसभा, राजप्रासाद, राजसी ठाटबाट या राजकीय आचार व्यवहार का वर्णन नहीं किया है। यदि उन्हें किसी का आश्रय प्राप्त हुआ होता तो वे अपने लेखन में उसका उल्लेख अवश्य ही करते, पर कल्हण की राजतरंगिणी को अप्रामाणिक गन्थ भी नहीं माना जा सकता। अतः यशोवर्मा की राजसभा में राजकवि वाक्पतिराज और महाकवि भवभूति की उपस्थिति इसका प्रमाण है। महाराज यशोवर्मा के कानों में भवभूति की साख पहुँची होगी और उन्होंने आदर के साथ उन्हें पद्मावती से कन्नौज बुलाकर अपनी राजसभा में सम्माननीय स्थान प्रदान कर दिया होगा। कश्मीर नरेश राजाधिराज ललितादित्य भी विद्धानों का आदर करता थे। उसकी राजसभा में भी बहुत से विद्धान् थे। जब यशोवर्मा उनसे हार गया तो प्रश्न उठता है कि वे भवभूति जैसे विद्धान् को अपने यहाँ कश्मीर क्यों नहीं ले गये होंगे ? भवभूति कश्यप गोत्रीय थे। कश्मीर में कश्यप ऋषि की तपोभूति श्रीनगर के मध्य में स्थित शंकराचार्य पहाड़ी है। क्या इतने बड़े विद्धान् के मन में अपने आदि ऋषियों की तपोभूमि देखने की इच्छा नहीं हुई होगी ? जब मैं स्वयं उस पावन भूमि के दर्शन की लालसा नहीं दबा सका। तथ्य साथ-साथ रखने पर हमें सोचने को मजबूर कर देते हैं कि भवभूति कन्नौज से यशोवर्मा के पराजित हो जाने पर (हारविथ्स के अनुुसार 733 ई. के आसपास) निश्चित ही अपने जीवन के अंतिम दिनों में कश्मीर चले गये होंगे।
मालतीमाधवम् के नवम् अंक में किये गये वर्णन से निश्चित हो जाता है कि भवभूति ने अपने जीवनकाल के महत्त्वपूर्ण वर्ष इसी पद्मावती नगरी में व्यतीत किये हैं। यहीं रहकर उन्होंने महावीरचरितम्, मालतीमाधवम् तथा उत्तररामचरितम् नाटक लिखे हैं, जो कालप्रियनाथ के यात्रा-उत्सव के वर्णन से स्पष्ट हो जाता है। इसके अलावा आप लोेगों को मेरी यह बात जानकर आश्यर्च होगा कि पद्मावती नगरी की परिधि में आने वाली बस्ती गिरजोर (गिजौर्रा) में च्यवन ऋषि की तपोभूमि के पास विश्वामित्र की यज्ञभूमि की खड़िया (खाड़ी) है। सर्व विदित है कि महावीरचरितम् का प्रारम्भ विश्वामित्र के यज्ञ से किया गया है। इन तथ्यों को साथ-साथ रखने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि महावीरचरितम् की रचना निश्चय ही इसी भूभाग की देन है।
मालतीमाधवम् में सिन्धु और पाटलावत्या , जो आज की सिन्धु और पार (पार्वती) नदी है, तथा इसी में लवणा अर्थात् नोंन नदि का मनोहारी वर्णन किया है। इसके अलावा मधुमति जिसे आज हम महुअर नदी के रूप में जानते हैं। स्वर्ण बिन्दु एवं श्रीपर्वत के मनमोहक वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि भवभूति का पद्मावती नगरी से गहरा अनुराग रहा है।
वर्तमान में भवभूति की तीन नाट्य कृतियाँ उपलब्ध हुई हैं। पहली महावीरचरितम्, दूसरी मालतीमाधवम् तथा तीसरी उत्तररामचितम्। इनके अतिरिक्त शाड़्गधर पद्धति तथा सदुक्तिकर्णामृत में संग्रहीत कुछ सुभाषित पद्य भवभूति के नाम से मिले हैं, जो श्रृंगाररस से परिपूर्ण होने के साथ-साथ पारिवारिक जीवन तथा ग्रामीण जीवन का सुन्दर चित्र अंकित करते हैं। इन पद्यों की भावानुभूतियाँ से स्पष्ट हैं कि भवभूति ने इन तीन नाटकों के अतिरिक्त अन्य काव्य, नाटक आदि भी अवश्य ही लिखे होंगे, जो आज हमें अप्राप्य है। भवभूति उन महापुरूषों में से हैं जो अपने मार्ग का निर्माण स्वयं करते हैं। अनेक वर्षों के कठोर परिश्रम से उन्होंने गुरु ज्ञाननिधि से ज्ञान का भण्डार प्राप्त किया था। अगाध पाण्डित्य और असाधारण प्रतिभा के योग से उनमें अखण्ड आत्मविश्वास उत्पन्न हो गया था। उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में नये-नये मार्गों का निर्माण भी किया है। उन्होंने अपने दो नाटक महावीरचरितम् एवं उत्तररामचरितम् में रामायण के प्रायः सम्पूर्ण कथानक को ही समेट लिया। महावीरचरितम् में राम के जीवन की अनेक घटनाओं को नाटकीय रूप देने के लिये कवि ने इनकी मूलकथा में भी परिवर्तन कर दिया है। ऐसा करने में उनका उद्देश्य नाटक का तर्क संगत विकास करना रहा है। उनके सभी पात्र कर्तव्य का दृढ़तापूर्वक पालन करते हैं। प्रजा के प्रति उत्तरदायित्व का निर्वाह करने के लिये राम, प्राणों से प्रिय पत्नी का परित्याग कर देते हैं। शम्बूक का वध करते हैं, इन घटनाओं से कवि हृदय व्यथित भी होता है। वे अपने लक्ष्य रामसीता के मिलन के लिये कई कथानकों में परिवर्तन कर डालते हैं। शम्बुक को राम के द्वारा मुक्ति दिलाते हैं। लगता है कवि नाटक के कथ्य में परिवर्तन कर सीता परित्याग का प्रायश्चित कर रहे हैं। ऐसे ही तथ्यों के आधार पर भवभूति उपन्यास का कथ्य निर्मित करने में आसानी रही है।
भवभूति रससिद्ध कविं हैं उन्होंने वीर और करुण की निष्पत्ति मे ंअपूर्व सफलता प्राप्त की है। भाषा पर भवभूति का असाधारण अधिकार है। वे सरल भाषा का प्रयोग भी करते हैं और क्लिष्ट भाषा के प्रयोग में भी सिद्धहस्त हैं।
भवभूति गम्भीर स्वभाव के कवि हैं। उनका हास्य अत्यन्त शिष्ट और सुसंस्कृत है यही कारण है कि भवभूति के तीनों नाटकों में विदूषक का स्थान नहीं है। भवभूति की पद्य रचनाएँ श्रृंगाररस से परिपूर्ण होने के साथ-साथ पारिवारिक जीवन तथा ग्रामीण जीवन का सुन्दर एवं सुस्पष्ट चित्र अंकित करती हैं। उनकी इन्हीं विशेषताओं पर मुग्ध होकर किसी भावुक कवि ने कह दिया - ‘कवयः कालिदासः भवभूति महाकविः’।
परमहंस मस्तराम गौरीशंकर बाबा, परम पूज्य गुरुदेव स्वामी हरिओम तीर्थजी महाराज एवं स्वामी सहजानन्द जी महाराज की कृपा से आज यह रचना मुखरित हो उठी है । उसे उचित दिशा देने के लिये पद्मावती- डॉ. मोहनलाल शर्मा, कल्हणकृत- राजतरंगिणी, महाकवि- भवभूतिकृत महावीरचरित्, मालतीमाधवम् एवं उत्तररामचरितम् को अनेकों बार पढ़ा एवं गुना है। किन्तु हर बार नई-नई बातें सामने आती रही। उसके अलावा भवभूति के इन नाटकों से पृथक कुछ श्लोक और मिले हैं। उनका भी कथ्य के माध्यम से प्रयोग किया गया है। जिससे भवभूति सरस बनकर सुधीजनों तक पहुँच सकें। ऐसे पद्यों का भावार्थ पं. श्री हरचरनलाल वैद्य एवं पं. विश्वेश्वरदयाल बोहरे के सहयोग से किया है। इसके लिये उनका हृदय से आभार मानता हँू।
पद्मावती नगरी के राजा वसुभूति, कन्नौज के महाराजा यशोवर्मा, कश्मीर के महाराजा ललितादित्य एवं उनके मित्र मित्रशर्मा तथा भवभूति एवं उनके माता-पिता, बाबा आदि के एतिहासिक नामों का ही प्रयोग किया है।
प्ंा0 विद्यानिवास मिश्र के लेखन ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। ‘भवभूति के नाटक’ डॉ. बृजवल्लभ शर्मा की पुस्तक का पर्याप्त सहयोग मिला है। उपन्यास के कथ्य निर्धारण एवं पात्रों के चयन में डॉ. भगवानस्वरूप चैतन्य एवं श्री दीपक कुमार गुप्ता ‘दीप’ ने जो परामर्श दिया है, उसके लिये मैं उनका कृतज्ञ हूँ। आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी-सागर, पं. गुलाम दस्तगीर-मुम्बई, श्री वेदराम प्रजापति मनमस्त, प्रो0 अवधेश कुमार चंसोलिया, प्रख्यात कथाकार ए0असफल, राजनारायण वोहरे एवं प्रमोद भार्गव, की सुखद प्रेरणा से रचना पूर्ण हो सकी है। डॉ0बी0एल0 मीना जी के सहयोग से यह कृति आप तक पहुँच रही है। इनके प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित करता हँू।
आशा है भवभूति पर आप अपनी सार्थक प्रतिक्रिया व्यक्त कर, मेरे कृतित्व को सार्थकता प्रदान करेंगे।
02.06.15 रामगोपाल भावुक